Bal Vikas Ka Arth, Pribhasha, Mahatva evm Visheshtaye : दोस्तों इस लेख में हम बाल विकास का अर्थ, परिभाषा, महत्व एवं विशेषताएं के बारे में बताएंगे तो ध्यान से पढ़ें और प्रश्नो के उत्तर लिखें. bal vikas free notes डाउनलोड करने के लिये पोस्ट को अन्त तक पढ़ें.
बाल विकास का अर्थ, परिभाषा, महत्व, विशेषताएं (Bal Vikas Ka Arth, Pribhasha, Mahatva, Visheshtaye)
बाल विकास (Bal Vikas) मनोविज्ञान की एक शाखा है. इसमें बालकों के व्यवहार, स्थितियाँ, समस्याओं तथा उन सभी कारणों का अध्ययन किया जाता है, इन सबका प्रभाव बालक के व्यवहार पर किसी न किसी रूप में पड़ता है.
बाल विकास का अर्थ बालक के बड़ा होने से ही नही होता बल्कि यह एक बहुमुखी क्रिया के रूप में होता है. इसमे शरीर के अंगो का विकास, सामाजिक, सांवेगिक अवस्थाओं मे होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है. और इसमें शक्तियों और क्षमताओं के विकास (Bal Vikas in Hindi) को भी गिना जाता है. जैसे-जैसे बालक की लम्बाई का बढ़ना एवं उसमें अनेक परिवर्तन होते रहते है. शुरू में तो ये परिवर्तन प्रगतिशील दिशा में होते है लेकिन धीरे-धीरे वृद्धावस्था में इनमें गिरावट होती है.
इसीलिए मनोवैज्ञानिक जेम्स ड्रेवर ने लिखा है कि,” विकास प्राणी मे परिवर्तन है, जो कि किसी निश्चित लक्ष्य की ओर निरंतर निर्देशित रहता है।”
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” विकास प्राणी की शरीर-अवस्था में एक लम्बे अर्से तक होने वाले लगातार परिवर्तन का एक क्रम है। यह विशेषकर ऐसा परिवर्तन है, जिसके कारण जन्म से लेकर परिपक्वता और मृत्यु तक प्राणी में स्थायी परिवर्तन होते हैं।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि विकास केवल एक अमूर्त प्रत्यय ही नही हैं, अपितु इसे देखा जा सकता है और कुछ सीमा तक इसका मापन भी किया जा सकता है Bal Vikash व्यक्ति के व्यवहार में परिलक्षित होता है। इसप्रकार ‘विकास’ वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होता है. यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में (bal vikas notes) भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक होता है. यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है। यह प्रगति का मानदण्ड है और इसका आरंभ शुन्य से होता है.
उपरोक्त उपरोक्त आधार पर स्पष्ट है कि परिवर्तनों की श्रृंखला ही विकास है, किन्तु सभी परिवर्तन एक ही प्रकार के नही होते. विकास की प्रक्रिया को केवल एक ही प्रकार से प्रभावित नही करते. सामान्यतः ये परिवर्तन आकार, अनुपात, पुराने लक्षणों के लोप और नवीन लक्षणों के ग्रहण करने के चार श्रेणियों में विभाजित किये जाते हैं.
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बाल विकास की परिभाषा (Bal Vikas Ki Pribhasha)
Bal Vikas ki Pribhasha : जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “विकास प्राणी मे परिवर्तन है, जो कि किसी निश्चित लक्ष्य की ओर निरंतर निर्देशित रहता है।”
गैसल के अनुसार,” विकास केवल एक प्रत्यक्ष या धारणा ही नही है, अपितु विकास का निरीक्षण किया जा सकता है, मूल्यांकन किया जा सकता है तथा मापन किया जा सकता है। विकास का मापन शारिरिक, मानसिक तथा व्यावहारिक तीनों दृष्टियों से किया जा सकता हैं।”
एक बालक और वयस्क दोनों के शरीर में अनुपात संबंधी विभिन्नता भी पाई जाती हैं. बालकों में शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ अनुपात संबंधी परिवर्तन भी मानसिक रूप से दीखते हैं.
बालक में आकार संबंधी शारीरिक परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते है, जैसे- कद बढ़ना, वजन बढ़ना तथा शरीर के अन्य बाहरी एवं आंतरिक अंगों का विकास होना. इसी प्रकार के परिवर्तन मानसिक विकास (Bal Vikas Kya Hai) मे भी देखे जाते है. बालक की शब्दावली का विकास हमेशा होता रहता है. उसकी तर्क-शक्ति और कल्पना-शक्ति भी समय के अनुसार विकसित होती हैं.
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और बालक जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है, उसके कई पुराने लक्षण लुप्त अथवा समाप्त होते जाते है, जैसे – ग्रीवा ग्रंथि, शीर्ष ग्रंथि तथा दूध के दांत आदि. बालक जिन नवीन लक्षणों को ग्रहण करता हैं, वे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं. बालक कुछ नवीन लक्षणों को सीखकर ग्रहण करता है और कुछ परिपक्वता के साथ-साथ उसमें आते हैं. बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास दो प्रमुख कारणों से होता है, एक आन्तरिक रूप से शारीरिक शीलगुणों की परिपक्वता के कारण, दूसरे अभ्यास एवं अनुभव की वजह से स्पष्ट होता है.
बाल विकास अध्ययन का महत्व (bal vikas adhyayan ka mahatva)
bal vikas adhyayan ka mahatva : बालक के जन्म से लेकर किशोरावस्था के अंत तक उनमें जैविक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते रहते है जिसके फलस्वरूप बालक के भावी जीवन की संरचना का एक खाका खिंच जाता है. आज के समय मे बाल विकास विषय का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है. बाल विकास के अध्ययन से बालकों का कल्याण और साथ-साथ, उनके माता-पिता भी बालकों की आवश्यकताओं एवं विचारो को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समझ सकते हैं. और बाल विकास भी अन्य सामाजिक विज्ञानों की तरह एक स्वतंत्र विज्ञान है. अतः इसे संपूर्ण मानव विकास की एक इकाई के रूप में मान्यता प्रदान की गई है.
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बाल विकास का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्वतः ही स्पष्ट है.
1. बाल-पोषण का ज्ञान: बालक के गर्भ मे आने से लेकर संसार में प्रथम दर्शन देने तक की संपूर्ण प्रक्रिया अपने में महत्वपूर्ण होती है। कम अवस्था में यदि बाल विकास (bal vikas ki shakha) का क्रमिक ज्ञान भावी, माता तथा उसके संरक्षकों को होगा तो वे उसकी उचित देखभाल करेंगे और गर्भावस्था की आपदाओं से गर्भिणी की रक्षा हो सकेगी। मार्गरेट मीड तथा नाइड न्यूटन ने अपने लेखों में उन तत्वों का विश्लेषण किया है जो नर-नारी को माता-पिता तथा पारिवारिक ढाँचे में फिट करते हैं। मातृत्व, पितृत्व दायित्व जैसे आधारभूत प्रश्नों का उत्तर बाल विकास के गंभीर अध्ययन से ही प्राप्त होता हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में बाल विकास का पोषण किस प्रकार होता है, उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक परम्परायें क्या है? आदि की जानकरी देने में यह शास्त्र उपयोगी सिद्ध हुआ हैं।
2. बालक की विकासात्मक क्रियाओं का ज्ञान: प्रत्येक बालक अपनी विकास प्रक्रिया में एक निश्चित आयु में एक गुण प्रदर्शित करता है। ये गुण उससे पूर्व या बाद की विकास अवस्थाओं में परिलक्षित नही होता है और यदि होता भी है तो सामान्य रूप में होता है विशिष्ट रूप में नही। इन्हीं परिलक्षित गुणों को विकासात्मक क्रियाएँ कहते हैं। जैसे- शिशु के जन्म से 3-4 माह में भाषा विकास होने लगता है। बाल-विकास की अवस्था का ज्ञान प्राप्त करके अभिभावक इन विकासात्मक क्रियाओं के आधार पर बालक के विकास का उचित निर्देशन दे सकते हैं।
3. व्यक्तिगत विभिन्नताओं की जानकारी : बाल विकास का अध्ययन करके हम बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का पता लगा सकते है और उसी के अनुसार उनकी आगामी शिक्षा की व्यवस्था की जाती है जिसमें विकास की प्रक्रिया का एक निश्चित स्वरूप होता है। जैसे– मंद बुद्धि बालक की अपेक्षा कुशाग्र बुद्धि के बालक शीघ्र सीखना शुरू कर देता है।
4. बालकों के प्रशिक्षण एवं शिक्षा में उपयोगी : बाल विकास के अध्ययन से ही इस बात का पता चलता है कि किस अवस्था में बालक की मानसिक योग्यता कितनी होती हैं? बालक की मानसिक योग्यता का पता लगाकर उसके प्रशिक्षण एवं शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। बालकों की मानसिक योग्यता को आधार मान कर ही उनके लिए पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाता है। विद्यालयी क्रियाकलापों में भी बालक की मानसिक योग्यता, आयु, शक्ति आदि को ध्यान में रखा जाता हैं।
5. बालक के संपूर्ण विकास की अवस्थाओं का ज्ञान : बालक गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक किस प्रकार विकसित होता है, इसका ज्ञान माता-पिता बाल विकास के अध्ययन से ही प्राप्त कर सकते है एवं अपने शिशु के विकास की विभिन्न अवस्थाओं के विकास में उसका समुचित प्रयोग करके उसके विकास में योगदान दे सकते है।
6. बालकों का विश्वास : प्रायः देखा जाता है कि बालक माता-पिता से झूठ बोलते हैं। ऐसी स्थिति मे बालक अपने माता-पिता का विश्वास खो बैठता हैं। बाल विकास का अध्ययन माता-पिता को सामाजिक निर्देशन देता है और उन परिस्थितियों तथा उपायों की ओर ध्यान दिलाता है जिनके द्वारा माता-पिता तथा बालक, दोनों में सद्भाव विकसित होता हैं। इस तरह bal vikas ke mahatva को समझ गए होंगे.
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बाल विकास की विशेषताएं (bal vikas ki visheshtayen)
Bal Vikas की कुछ महत्वपूर्ण विशषताएं नीचे दी गयी है. इन्हें समझें –
1. विकास की अवस्थाओं का ज्ञान
2. सामाजीकरण का ज्ञान
3. बालक के व्यक्तित्व का विकास
4. खेल तथा बालक
5. स्वास्थ्य एवं शिक्षा का ज्ञान
6. वैयक्तिक विभिन्नता पर बल
बाल विकास के अध्ययन से माता-पिता (bal vikas ki visheshtayen) को यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार बालक शैशव से प्रौढ़ावस्था की ओर विकसित होता है। इन विभिन्न अवस्थाओं में उसमे कौन-कौन से शारीरिक, संवेगात्मक सामाजिक, नैतिक तथा भाषाई संबंधी परिवर्तन आते हैं।
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बालक का सामाजीकरण उसके जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। इसी के कारण वह समाज के लिए उपयोगी बनता है। बाल विकास के अध्ययन सामाजीकरण की विभिन्न प्रक्रियाओं की ओर संकेत करते है। परिवार समाज तथा समुदाय की परिस्थितियों को सामाजीकरण के लिये और भी उपयोगी बनाने में इस अध्ययन का महत्व स्वयं सिद्ध है। संपर्क, अन्त:क्रिया अनुसंधान व्यवहार बालक के सामाजीकरण की ओर संकेत करते हैं। इसी प्रकार खोज करने की प्रवृत्ति जिज्ञासा मूलक व्यवहार से प्रकट होती है।
बाल विकास के अध्ययन से बालक के व्यक्तित्व का विकास सरलता से किया जा सकता है। बालक मे अनेक शक्तियाँ तथा क्षमतायें पाई जाती हैं। यह क्षमता तभी उचित दिशा में विकसित होती है जबकि बालक के विकास (bal vikas ki Visheshtaye) की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान अभिभावकों को होता है। जो बालक सर्जनात्मक गुणों से पूर्ण है, उसे सामान्य शिक्षा के द्वारा विकसित नही किया जा सकता। अतः बालक की बुद्धि, प्रतिभा आदि को वांछित दिशा देकर उसके व्यक्तित्व के अनेक गुणों को विकसित किया जा सकता है।
खेल बालक के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। खेलों से ही बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं मे गति आती है। अभिभावकों को बाल विकास का अध्ययन यह बताता है कि खेलों को बालक के विकास की प्रक्रिया में किस प्रकार रखा जाये कि उसका सन्तुलित विकास हो सके। घर, विद्यालय तथा समुदाय, तीनों स्थानों पर बालक के खेलों में विविधता आ जाती है। इसीलिए उसके चयन की ओर भी बाल विकास परामर्श देता हैं।
बालक का शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य उसके विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। जिन बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य खराब होता है। वे मानसिक रूप से भी अस्वस्थ्य पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में बालक का निरोग रहना आवश्यक है। बालक का निरोध रहना उसके दिये जाने वाले भोजन तथा उसके पोषण के प्रतिमानों पर निर्भर करता है। यह जानकारी बाल विकास के अध्ययन से ही आती है।
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बाल विकास के अध्ययन ने शिशु-शिक्षा के मानदण्ड बदल दिये हैं। माता-पिता भी बालक के शैक्षिक विकास के लिये उतने ही जिम्मेदार हैं जितना कि शिक्षक। बालक की शिक्षा की प्रक्रिया में रूचि, अभिरूचि, योग्यता, क्षमता आदि का विशेष महत्त्व हो गया है। पाठ्यक्रम आयु, बुद्धि तथा परिवेश के अनुसार बनने लगे है। डाल्टन, किन्डरगार्टन, माॅन्टेसरी, नई तालीम आदि अनेक शिक्षण विधियाँ बालक को विशेष महत्व देती है। समय-सारणी बनाते समय बालकों की क्षमता तथा शक्ति का अधिकतम ध्यान रखा जाता हैं।
बालक विकास का आधार व्यक्ति है। यह दो व्यक्तियों के समान व्यवहारों का समान क्रिया-प्रतिक्रियाओं का फल नही मानता। एक माता-पिता के दो बालकों में समानता नही पाई जाती है। एक किसी बात को शीघ्र समझ लेता है और दूसरा नही समझ पाता। अतः ऐसे वैयक्तिक भेदों से युक्त बालक को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता होती हैं। बाल विकास का अध्ययन इसलिए मन्दबुद्धि, प्रतिभाशाली तथा विकलांग बालकों की पृथक शिक्षा पर बल देते हैं।
निष्कर्ष :- उम्मीद है आपको यह लेख “बाल विकास का अर्थ, परिभाषा, महत्व, विशेषताएं” (Bal Vikas Ka Arth, Pribhasha, Mahatva, Visheshtaye) पसंद आया होगा. ऐसे ही आर्टिकल के लिये इस वेबसाइट पर विजिट करते रहें और शेयर करें अपने ग्रुप में दोस्तों के साथ. टेलीग्राम join करें. जिस विषय के notes चाहिए कमेंट में लिखें
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